दरबार-ए-वतन

Friday, March 11, 2016

दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएंगे
कुछ अपनी सज़ा को पहुंचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएंगे

ऐ ख़ाक-नशीनों उठ बैठो, वो वकत करीब आ पहुंचा है
जब तख़त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे

अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िन्दानों की ख़ैर नहीं
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे

कटते भी चलो,बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल ही पे डाले जाएंगे

ऐ ज़ुल्म के मातो, लब खोलो, चुप रहने वालो, चुप कब तक
कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएंगे

(जज़ा=इनाम, ज़िन्दानों=जेलखाने, हश्र=प्रलय, नाले=शोर)

—Faiz Ahmed Faiz, Pakistani Poet (1911-1984)

MBE (Most Excellent Order of the British Empire)
Nishan-e-Imtiaz (Pakistan)
Lenin Peace Prize (1962) from Soviet Union

Thanks to Ram Rao for bringing this version to my attention.