class: center middle # हनोज़ शीश’ह गराँ ## केसरी किशोर --- background-image: url(img/urdu/0.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ## हनोज़ शीश’ह गराँ (Hanoz Shīsha-Garān) ### केसरी किशोर (Kesri Kishor) ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/1.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ## हनोज़ शीश’ह गराँ (Hanoz Shīsha-Garān) ### केसरी किशोर (Kesri Kishor) ### १९७८ ई. (1978 AD) ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/2-3.gif) .lcol.opaque[ .tl[ #### नाशर: डॉक्टर केसरी किशोर रिवर बॅंक कॉलोनी, लखनऊ #### ख़त्तात: जाफ़र मिर्ज़ा #### ताब’अ: नामी प्रॅस, लखनऊ #### तक़सीमकार: ‘अली पब्लिशर्स 3, हॅल्थ स्क्वायर, लखनऊ 226003 किताबनगर, दीन दयाल रोड, लखनऊ, 226 003 ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/2-3.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ ### मेरे माता अौर पिता के लिये (To my mother and father) ] ] --- background-image: url(img/urdu/4-5.gif) .lcol.opaque[ .tl[ शम्सुल-अर्रहमान फ़ारूक़ी और नय्यर मसूद का क़रज़दार हूँ जिन्होंने मेरे कलाम को इस तरह देखा जैसे वह उनका अपना कलाम हो I am indebted to Shams-ur-Rahman Farooqui and Nayyar Masood who read my poems as if they were their own * अपनी बीवी सुधा, दोनों बच्चों पवन और पुनीत और अज़ीज़ दोस्तों डॉक्टर वली-उल-हक़ और उमर अंसारी का शुक्र गुज़ार हूँ जिन को मुझ से और मेरी शा’इरी से दिलचस्पी रही I am grateful for my wife Sudha, my two sons Pavan and Puneet, and my dear friends Dr. Wali-ul-Haque and Umar Ansari who were always interested in me and my poetry ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/4-5.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ ## तरतीब नज़्म: [हम लोग -- 11](/Hanoz#13) ग़ज़ल: हिरन की तर्ज़ … निवाले जाए -- 13 ग़ज़ल: बे-लिखा काग़ज़ … मिल कर दिया -- 15 नज़्म: अन्देशा हाए दूर दराज़ -- 17 ग़ज़ल: कलाम-ए-दोस्त … मुनाफ़क़ा न लगे -- 19 नज़्म: बन्द मकान -- 21 ग़ज़ल: है अक्स … मुकामिल है आइना -- 23 ग़ज़ल: फ़िक्र फर्दा … सूखी पत्तियाँ -- 25 नज़्म: हिसाब-ए-सूदोज़ियाँ (सूद-ओ-ज़ियाँ) -- 27 नज़्म: ऐ ताज़’ह वार्दान (वारदान) -- 28 नज़्म: इस से पहले कि -- 29 ग़ज़ल: उजाड़ शहरों … बैठा दिखाई देता है -- 30 ग़ज़ल: वक़्त की धूप … सिफरी का लिखा -- 31 ग़ज़ल: यहाँ भी … नजदिया सिका है -- 33 ] ] --- background-image: url(img/urdu/6-7.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ग़ज़ल: वाह रे … ख़ुद न खिले -- 35 नज़्म: फ़ैज़ बे दिली -- 36 ग़ज़ल: था नहाँ … सुकूँ का दरिया -- 37 ग़ज़ल: हम से मिलने … सर गराँ आए हैं -- 39 नज़्म: वक़्त महमूद है -- 40 ग़ज़ल: हमारा ख़ता … ही बताए जाओ -- 41 ग़ज़ल: शुरू हो के … नहीं पे ख़त्म हुई -- 43 नज़्म: तजदीद -- 44 ग़ज़ल: कशकूल-ए-तलब … भर दी जाते हैं तस्वीर हैं -- 45 नज़्म: एक नशरी नज़्म -- 47 ग़ज़ल: चीरती सीने … उबलती है हवा -- 50 ग़ज़ल: हिरन … शरर गया अच्छा हुआ -- 51 ग़ज़ल: ख़ार पर … सहराई (सहर आई) का जिस्म -- 53 नज़्म: उन दिनों -- 55 नज़्म: तलाक़-ए-नसयाँ -- 56 ग़ज़ल: ख़ल्क पर गल … परद’ह रंग है -- 57 नज़्म: मुफ़्ती-ए-मसलहत ने -- 59 दो शे’अर मिटा के भी … ख़िज़ा बहुत है अभी -- 60 नज़्म: रबी’अ अल-अव्वल -- 61 ग़ज़ल: ‘अजब नहीं … पार देखो -- 67 ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/6-7.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ नज़्म: अ’एराब -- 69 एक शे’अर ‘आलम … फूला न’ह फूला है -- 70 नज़्म: ‘अनासिर और हम -- 71 ग़ज़ल: जंगलों पर … बरसी होगी -- 72 नज़्म: अज़्दस्त रफ़्त’ह -- 74 ग़ज़ल: सबा मज़ाज … मकाँ ही न होता -- 75 ग़ज़ल: [सूरज से … ठहरी धूप -- 76](/Hanoz#21) ग़ज़ल: ना बयाँ … सज़ा मुझ को मिलेगी -- 78 नज़्म: नई दुनिया को सलाम ! -- 80 ग़ज़ल: ख़ामोश … क़बा कुछ कहती है -- 81 नज़्म: सब्ज़ तल्ख़ धुएँ की बात -- 82 नज़्म: नज़्म -- 85 नज़्म: फ़ीज़ मानना -- 86 पहली: ग़ज़ल दौर-ए-हसद … वतन जलता है -- 87 नज़्म: एक ख़बर -- 89 नज़्म: एक तजोयज़ -- 90 ग़ज़ल: वह दरिया … ब-ख़बर ब-गए -- 91 नज़्म: [आज़ादगान! -- 93](/Hanoz#23) ग़ज़ल: शा’आ’अ हर … उजाला है -- 95 नज़्म: बा’अद-ए-यक उम्र -- 96 ] ] --- background-image: url(img/urdu/8-9.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ग़ज़ल: ज़रूई … ज़िया हो ये भी तो हो सकता है -- 97 ग़ज़ल: [वक़्त … रवानी (दरज़ में तुलसीदास) -- 99](/Hanoz#25) नज़्म: [ईद और दिवाली -- 101](/Hanoz#27) नज़्म: होली -- 103 ग़ज़ल: फिर दिल-ए-वीराँ … संजिशी गई -- 105 नज़्म: म’इम्मा -- 107 ग़ज़ल: इश्क़ था … डूबने वाला न था -- 108 ग़ज़ल: इक सबूत … वफ़ा भी देना -- 110 नज़्म: एक मंज़िल -- 112 ग़ज़ल: इक घना जंगल … पेड़ पानी के कटे -- 113 ग़ज़ल: नज़ार’ह … नार सा ही देखा है -- 114 ग़ज़ल: अरता’अश-ए-दीद’ह … सय्याल आ सा देखना -- 116 नज़्म: ‘अब्बास अलम/’इल्म दार -- 118 ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/8-9.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ # हनोज़ शीश’ह गराँ # hanoz shīsha-garān ] ] --- background-image: url(img/urdu/10-11.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ज़ी वहम बर सर-ए-मीना खुद श’ह मी लरज़ी हनोज़ शीश’ह गराँ दर शिकस्तन संग अन्द – मीर्ज़ा अब्द-अल-क़ादिर “बेदिल” Why are you trembling, out of delusion, on account of your heart? The glass-blowers are the ones who created it, and they are still the only ones with the authority to break it. – Mirza Abd-al-Qadir “Bedil” ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/10-11.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ ## हम लोग गुलों की सर्द निगाही से डर गए हम लोग चमन से सर को झुकाए गुज़र गए हम लोग हयात फ़ुरसत-ए-रक़्स-ए-शरर लिए आ गई जहाँ में बस इधर आए उधर गए हम लोग उठी तो ता ब’ह फ़लक और झुकी तो ज़ेर ज़मीं जिधर जिधर गई उस की नज़र गए हम लोग ] ] --- background-image: url(img/urdu/12-13.gif) .lcol.opaque[ .tl[ किसे पुकारें कि दरबस्त’ह घर में कोई नहीं बताए कौन कि आख़िर किधर गए हम लोग हमें तलाश उन जो शहर ही मे न थे फ़ज़ूल कोये(?) ब’ह को दर ब दर गए हम लोग ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/12-13.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ हर्फ़ की तर्ज़ नम आतिश सी नवा/निवा ले जाए तेज़ दूप तो पानी को उड़ा ले जाए गुल हुनर वह जो खिले सब्ज़ा-ए-बेगाना में बज़्म बेदाद में भी बात बना ले जाए कोह ये कह के (जो अबूँ/जवा बूँ)(?) से सबकदोश हुआ अब जो आएँ तो सदाएँ को ख़िल/ख़ला(?) ले जाए ] ] --- background-image: url(img/urdu/14-15.gif) .lcol.opaque[ .tl[ बेरुख़ी पूछती थी भेस बदल कर मुझ से होश बाक़ी हों तो दामन की हवा ले जाए तनक/तनिक(?) आई/आबी(?)ने डुबाया है मुझे अब तो कहीं गहरे पानी में दिल दोस्त-ए-शना ले जाए रंग तस्वीर बचे हाथ से इस/उस(?) के कब तक वक़्त जो आँख से पुतली भी चुरा ले जाए संग टूटे,बहे दरिया, मिटे पानी का फ़शार कब तलक कोह इस/उस(?) आज़ार को पाले जाए ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/14-15.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ बे-लिखा काग़ज़ जो इस/उस(?) ने होंट पर मल कर दिया बात पक्की हो गई रिश्त’ह मुकम्मल कर दिया शौक़ ने मांगा मबदल(?) हो अभी आज और हिम्मत ना पख़त’ह(?) ने हर आज को कल कर दिया बर्क़(?) को बख़्शे तो ऐ नर्म(?) औसाफ़(?) अब्र श’अल’ह(?) सय्याल को पानी की छा गल/गुल(?) कर दिया ] ] --- background-image: url(img/urdu/16-17.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ज़र्द हो या हो गुलाबी एक ही शग़याम(?) था अश्क़ ने ढ़ल कर दिया और आँख ने चल कर दिया चन्द सदियों के लिए इंसाँ से जब फ़ुरसत ली वक़्त पा कर वक़्त ने पहरों को जंगल कर दिया ख़ुश्क मौसम ने बिछाया सहन गुल पर फ़र्श ख़ाक सारे क़ालीनों को इस/उस(?) जोगी ने कम्बल कर दिया बात जो कहनी थी कह(?) देते ग़ज़ल कहने से क्या लफ़्ज़ कर के नशर/नश्र(?) को मबहम को महल कर दिया ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/16-17.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ ## अन्देश’ह हाए दूर दराज़ सुन कि (?) ‘एनान/ग़ान(?) वक़्त जो तेरे हात न होगी तो क्या होगा दिन के सितम के ब’अद करम की रात न होगी तो क्या होगा दिन कि ग़ज़ब है, जाँ कि बलब(?) है अब है कि तब है वज’ह तस्ल्ली एक वह तिरा वातद’ह-ए-शब है, रात न होगी तो क्या होगा किश्त-ए-मुहब्बत सूखी सूखी, धरती प्यार की भूकी भूकी अब के बारह भी रहमत की बरसात न होगी तो क्या होगा ] ] --- background-image: url(img/urdu/18-19.gif) .lcol.opaque[ .tl[ तुझ से बातें होने से पहले सोच रहा हूँ तुझ से बातें होंगी तो क्या बातें होंगी बात न होगी तो क्या होगा अहल-ए-ख़िर्द/ख़िरद (?) जीने में परेशाँ, अहल-ए-ख़ूँ/जुनूँ(?) मरने से गरीज़ाँ/गरेज़ाँ बैठ के बस तशरीह(?)-ए-हयात व मात(?) न होगी तो क्या होगा सुबह के चार पलों की छेड़ से दिन भर गुलशन हँस्ता है और किसी दिन गुल नसीम से बात न होगी तो क्या होगा ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/76-77.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ## धूप सूरज से किरनो पर आई, आकर छत पर ठहरी धूप घर की मुंडेरों से आँगन तक जीना जीना उतरी धूप। नटखट बच्ची बेफिक्री से दिन भर धूप में खेली धूप शाम हुई सूरज ने पुकारा, पीछे पीछे भागी धूप। गर्मी के दिन, सुस्ती के दिन, पाँव पसारे सोई धूप नाम नहीं लेती उठने का, अलसाई अलसाई धूप। कंगन सोना, टीके मोती, कुंदन चेहरे, संदल बाँह हुस्न की आँच में तपते पैकर, कितने सूरज, कितनी धूप। नेयमत-ए-फ़ितरत किसकी नहीं है, दौलत-ए-इंसाँ किसकी है? सबका चाँद है, सबका सूरज, सबकी बारिश सबकी धूप। चढ़ती उम्र में खिड़की खिड़की झांके थी अब छिपती धूप, पूरब से पच्छिम आने तक कितनी हुई सयानी धूप। ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/76-77.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ कंगन सोना, टीके मोती, कुंदन चेहरे, संदल बाँह हुस्न की आँच में तपते पैकर, कितने सूरज, कितनी धूप। नेयमत-ए-फ़ितरत किसकी नहीं है, दौलत-ए-इंसाँ किसकी है? सबका चाँद है, सबका सूरज, सबकी बारिश सबकी धूप। चढ़ती उम्र में खिड़की खिड़की झांके थी अब छिपती धूप, पूरब से पच्छिम आने तक कितनी हुई सयानी धूप। ] ] --- background-image: url(img/urdu/16-17.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ## आज़ादगान तुमने देखा ही नहीं दौर-ए-गुलामी-ए वतन तुम तो पैदा ही हुए छाँव में आज़ादी की तुमने महसूस नहीं की वो दिल-ओ-जाँ की घुटन तुम पे कब मशक हुई है फ़न-ए-सय्यादी की बंद थी हम पे कई शाहरे कितने चमन किस मे दम था की कहे अपना वतन अपना वतन पहले हर जुमले को, हर लफ्ज़ को हम तोलते थे बोलते थे तो बहुत सोच के लब खोलते थे नज़्म-गोई के लिए सिर्फ कवायद के रुसूम घर में बैठो तो ज़ुबां बंद, बहम चिमटे हुए घर से निकलो तो बहुत सहमे हुए सिमटे हुए वो गिरां बारिये आज़ार कि अल्ला अल्ला हाय वो सितवते अग्यार कि अल्ला अल्ला बेधड़क तुम तो ज़ुबां अपनी हिला लेते हो तुम तो आक़ाओं से भी आँख मिला लेते हो याद है तुमको कि एक पीर यहाँ आया था साथ में अपने वो जादू कि छड़ी लाया था पाए अक्सीर गरी अपना ही तन मन फूँका अधमरी क़ौम थी, इस कौम में जीवन फूँका ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/16-17.gif) .lcol.opaque[ .tl[ उसके जीने का भी, मरने का सबब याद नहीं नाम भी उसका बहुत लोगों को अब याद नहीं चलो अच्छा है कि माज़ी से मुलाकात नहीं खैर, तुम भूल गए हो तो कोई बात नहीं ज़िक्रे माज़ी को समझते हो तो ज़हमत समझो इतना काफ़ी है कि आज़ादी की क़ीमत समझो शुक्र सद शुक्र, फ़रामोश हुई बर्बादी आज सरशार हो तुम, हम पे भी सरशारी है लेकिन इतना हमें कहने दो कि ये आज़ादी तुमको प्यारी है मगर हमको बहुत प्यारी है हम अधेड़ों की ये एक उम्र का सरमाया है हम इसे लायें हैं और तुमने इसे पाया है अपना ज़िम्मान न किसी ग़ैर पे जाकर रख्खो तुमको रखना है इसे इसको सजा कर रख्खो चंद रोज़ और मेरे दोस्त फ़कत चंद ही रोज़ हमसे सुन लो कोई नग़मा कोई नौहा कोई सोज़ सब तुम्हारा ही है, हम कुछ भी नहीं ले जायेंगे क़ौल दोहराते शहीदों का चले जायेंगे दरो दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं ख़ुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/16-17.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ## वक्त रवानी "का वर्षा जब कृषि सुहानी समय चूंकि पुनि का पछतानी।" वक्ते रवां का तर्ज़े रवानी कैसा बुढ़ापा कैसी जवानी। लाख बयाँ और एक मयानी? मेरी कहानी, सबकी कहानी लाखों बचपन एक कहानी एक था राजा, एक थी रानी। दुनिया दुनिया दौलत दौलत फ़ानी फ़ानी आनी जानी। कबतक हुस्न पे नाज़ करोगे किस बिरते पर तत्ता पानी। दिल का कहा सब मैंने किया पर दिल ने मेरी एक न मानी ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/16-17.gif) .lcol.opaque[ .tl[ इश्क की बातें हुस्न की घातें कितनी नयी और कितनी पुरानी हुस्न की सूरत इश्क की हालत शोला शोला पानी पानी। अहले ख़िरद की बातें बातें क्या जिस्मानी क्या रूहानी अहले अमल की बात मुकम्मिल क्या इंसानी क्या यज़दानी जां के लिए बस एक ही पैकर हम ज़िन्दा हैं या ज़िन्दानी? रूह की ख़ातिर सैकड़ों आलम रमता जोगी बहता पानी। दुनिया दुनिया दरिया दरिया आंछे इंसा छिछला पानी। ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/16-17.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ## ईद अौर दिवाली आसारो जलाली की हशमत औसाफ़े जमाली की रौनक दिल दिल में ख़ुशी, घर घर जगमग, रुख रुख पे बहाली की रौनक अल्लाह करे इंसा के एवज़ त्योहार गले से लग जाएँ हिन्दू को निशाते ईद मिले, मुस्लिम को दिवाली की रौनक ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/16-17.gif) .lcol.opaque[ .tl[ ये रंग बिरंगे लाल ओ गुल, हर डाली डाली की रौनक गुंचों में दमक फूलों में महक, हरसूं हरियाली की रौनक अल्लाह करे गुलशन के एवज़ यह फूल दिलों में खिल जाएँ हिन्दू को निशाते ईद मिले, मुस्लिम को दिवाली की रौनक बिजली की सतरंगी झालर से मंज़िले आली की रौनक साफ़िल के अदना से आँगन में चिरागे सिफ़ाली की रौनक अल्लाह करे सहनो के एवज़ सीनों में चरागाँ हो जाएँ हिन्दू को निशाते ईद मिले, मुस्लिम को दिवाली की रौनक ] ] .rcol[ .tr[ ] ] --- background-image: url(img/urdu/.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ <!doctype html> <!--[if lt IE 7 ]> <html class="no-js ie6" lang="en"> <![endif]--> <!--[if IE 7 ]> <html class="no-js ie7" lang="en"> <![endif]--> <!--[if IE 8 ]> <html class="no-js ie8" lang="en"> <![endif]--> <!--[if (gte IE 9)|!(IE)]><!--> <html class="no-js" lang="en"> <!--<![endif]--> <head><meta charset="utf-8"> <meta name="viewport" content="width=device-width, initial-scale=1.0, maximum-scale=1.0, user-scalable=no"> <meta name="version" content="4.0"> <meta name="date" content="Sun Dec 08 2024 12:47:36 GMT+0100 (Central European Standard Time)"> <meta name="author" content="Puneet Kishor"> <meta name="copyright" content="CC0 Public Domain Dedication"> <meta name="apple-mobile-web-app-capable" content="yes"> <meta name="apple-mobile-web-app-status-bar-style" content="black-translucent"> <meta http-equiv="Cache-Control" content="max-age=604800, public"> <title>punkish: Hanoz Shīsha-Garān</title> <!-- <link rel="stylesheet" href="/_lib/fonts/et-book/et-book.css"> <link rel="stylesheet" href="/_lib/fonts/hack/hack-subset.css"> <link rel="stylesheet" href="/_lib/fonts/Atkinson/atkinson.css"> --> <link rel="stylesheet" href="/_lib/css/uglyduck.css"> <link rel="stylesheet" href="/_lib/css/punkish.css"> <!-- <link rel="stylesheet" href="/_lib/JavaScript-autoComplete/auto-complete.css"> --> <link rel="stylesheet" href="/_lib/css/expanding-search.css"> </head> <body> <header class="row"><div> <a href="/" class="home"> <img src="/_lib/img/PunkishEidesisOrg.gif"> </a> <form name="search" method="GET" action=""> <input id="q" type="text" placeholder="there are none so blind as those who don’t see"> </form> <ul id="searchResults"></ul> </div> <nav> <a href="/cv-latest/">cv</a> <a href="/Where/">where</a> <a href="/_dates/">dates</a> <a href="/_tags/">tags</a> </nav></header> <main id="content"><section> <h1 class="title">Hanoz Shīsha-Garān</h1> <div class="description"></div> <div class="created">Tuesday, January 3, 2012</div> <div class="content"><p><img src="img/hanoz-couplet.png" alt="Hanoz Shīsha-Garān" /></p> <p>ज़ी वहम बर सर-ए-मीना खुद श’ह मी लरज़ी<br /> हनोज़ शीश’ह गराँ दर शिकस्तन संग अन्द<br /> – मीर्ज़ा अब्द-अल-क़ादिर “बेदिल” </p> <p>Why are you trembling, out of delusion, on account of your heart?<br /> The glass-blowers are the ones who created it, and they are still the only ones with the authority to break it.<br /> – Mirza Abd-al-Qadir “Bedil”</p> <p>My dad, Dr. Kesri Kishor, was a teacher, a professor of pharmacology at King George’s Medical College in Lucknow, India. He was also an Urdu poet inspired by the Indo-Persian poetry tradition, in particular by <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Abdul-Qādir_Bedil">Mirza Abd-al-Qadir “Bedil”</a>, a 17th Century Indian poet of Uzbek ancestry. A collection of my dad’s poems was published in 1978, but since the poems are written in Urdu, a script I cannot read, I did not fully comprehend the content and quality of these poems. Thankfully, my mom hand wrote the poems in Hindi, so I am able to read them and even transliterate them.</p> <p>Since I didn’t understand the meaning of the couplet that inspired the title of the book, I turned to Hajnalka Kovács<sup><a href="#punkish-fn:1"><sup id="fnref:1"><a href="#fn:1" rel="footnote">1</a></sup></a></sup>, a scholar of “Bedil” at the University of Chicago, who very kindly translated the above couplet.</p> <p>Now, 34 years after the book was published, I have made available the <a href="/Hanoz/p/">entire content of the book, along with Hindi transliteration of the poems where available</a>. This is a long-term project, and as I, with the help of a few dear friends, am able to transliterate more poems, I will add them to the web site.</p> <ol class="punkish-footnotes" style="border-top: 1px dotted; font-size: 0.8em"><li class="punkish-footnote" id="fn:1">Hajnalka Kovács was completing her Ph.D. at the University of Chicago when I contacted her in 2011. <a href="https://sas.fas.harvard.edu/people/catherine-warner" target="_blank">She is now a preceptor</a> at the Dept. of South Asian Studies at Harvard University.<a href="#fnref:1" title="return to article"> ↩</a></li></ol></div> <ul class="tags"> <li><a href="/_tags/poetry.html">poetry</a></li> <li><a href="/_tags/Urdu.html">Urdu</a></li> </ul> <ul class="bottomNav"> <li class="prev"><a href="/Stay-Away-From-Lonely-Places">↜ Stay Away From Lonely Places</a></li> <li class="next"><a href="/Eid-and-Diwali">ईद और दिवाली ⇝</a></li> </ul> </section> </main> <footer><p>Dedicated to the public domain under the <a href="https://creativecommons.org/publicdomain/zero/1.0/legalcode" target="_blank">CC0 Public Domain Dedication</a></p></footer> <!-- minisearch --> <script src="https://cdn.jsdelivr.net/npm/minisearch@7.1.1/dist/umd/index.min.js"></script> <script src="/_lib/js/search-mini.js"></script> <!-- <script src="/_lib/JavaScript-autoComplete/auto-complete.min.js"></script> --> <script src="/_lib/js/polyfill.js"></script> <script src="/_lib/js/punkish.js"></script> <!-- see https://www.the-art-of-web.com/javascript/search-highlight/ --> <script src="/_lib/js/hilitor.js"></script> <script> window.addEventListener('load', (e) => { //PK.autocomplete(); PK.initializeDictionary(); const searchInPage = document.getElementById('searchInPage'); if (searchInPage) { const inp = document.getElementsByName('tag'); // console.log(inp) inp[0].addEventListener('keyup', PK.searchInPage); } const loc = window.location; if (loc.hash) { const term = loc.hash.substring(1); // id of the element to parse const myHilitor = new Hilitor("content"); myHilitor.apply(term); } }) </script></body> </html> ] ] --- background-image: url(img/urdu/.gif) .lcol[ .tl[ ] ] .rcol.opaque[ .tr[ ![Hanoz Shīsha-Garān](img/hanoz-couplet.png) ज़ी वहम बर सर-ए-मीना खुद श’ह मी लरज़ी हनोज़ शीश’ह गराँ दर शिकस्तन संग अन्द – मीर्ज़ा अब्द-अल-क़ादिर “बेदिल” Why are you trembling, out of delusion, on account of your heart? The glass-blowers are the ones who created it, and they are still the only ones with the authority to break it. – Mirza Abd-al-Qadir “Bedil” My dad, Dr. Kesri Kishor, was a teacher, a professor of pharmacology at King George’s Medical College in Lucknow, India. He was also an Urdu poet inspired by the Indo-Persian poetry tradition, in particular by [Mirza Abd-al-Qadir “Bedil”](https://en.wikipedia.org/wiki/Abdul-Qādir_Bedil), a 17th Century Indian poet of Uzbek ancestry. A collection of my dad’s poems was published in 1978, but since the poems are written in Urdu, a script I cannot read, I did not fully comprehend the content and quality of these poems. Thankfully, my mom hand wrote the poems in Hindi, so I am able to read them and even transliterate them. Since I didn’t understand the meaning of the couplet that inspired the title of the book, I turned to Hajnalka Kovács<sup><a href="#punkish-fn:1">[^1]</a></sup>, a scholar of “Bedil” at the University of Chicago, who very kindly translated the above couplet. Now, 34 years after the book was published, I have made available the [entire content of the book, along with Hindi transliteration of the poems where available](/Hanoz/p/). This is a long-term project, and as I, with the help of a few dear friends, am able to transliterate more poems, I will add them to the web site. [^1]: Hajnalka Kovács was completing her Ph.D. at the University of Chicago when I contacted her in 2011. <a href="https://sas.fas.harvard.edu/people/catherine-warner" target="_blank">She is now a preceptor</a> at the Dept. of South Asian Studies at Harvard University. ] ]