आज़ादगान

Friday, December 23, 2011

तुमने देखा ही नहीं दौर-ए-गुलामी-ए वतन
तुम तो पैदा ही हुए छाँव में आज़ादी की
तुमने महसूस नहीं की वो दिल-ओ-जाँ की घुटन
तुम पे कब मशक हुई है फ़न-ए-सय्यादी की

बंद थी हम पे कई शाहरे कितने चमन
किस मे दम था की कहे अपना वतन अपना वतन

पहले हर जुमले को, हर लफ्ज़ को हम तोलते थे
बोलते थे तो बहुत सोच के लब खोलते थे

घर में बैठो तो ज़ुबां बंद, ब-हम चिमटे हुए
घर से निकलो तो बहुत सहमे हुए सिमटे हुए

वो गिरां बारिये आज़ार कि अल्ला अल्ला
हाय वो सितवते अग्यार कि अल्ला अल्ला

बेधड़क तुम तो ज़ुबां अपनी हिला लेते हो
तुम तो आक़ाओं से भी आँख मिला लेते हो

याद है तुमको कि एक पीर यहाँ आया था
साथ में अपने वो जादू कि छड़ी लाया था

पाए अक्सीर गरी अपना ही तन मन फूँका
अधमरी क़ौम थी, इस कौम में जीवन फूँका

उसके जीने का भी, मरने का सबब याद नहीं
नाम भी उसका बहुत लोगों को अब याद नहीं

चलो अच्छा है कि माज़ी से मुलाकात नहीं
खैर, तुम भूल गए हो तो कोई बात नहीं

ज़िक्रे माज़ी को समझते हो तो ज़हमत समझो
इतना काफ़ी है कि आज़ादी की क़ीमत समझो

शुक्र सद शुक्र, फ़रामोश हुई बर्बादी
आज सरशार हो तुम, हम पे भी सरशारी है
लेकिन इतना हमें कहने दो कि ये आज़ादी
तुमको प्यारी है मगर हमको बहुत प्यारी है

हम अधेड़ों की ये एक उम्र का सरमाया है
हम इसे लायें हैं और तुमने इसे पाया है

अपना ज़िम्मान न किसी गेर पे जाकर रख्खो
तुमको रखना है इसे इसको सजा कर रख्खो

चंद रोज़ और मेरे दोस्त फ़कत चंद ही रोज़
हमसे सुन लो कोई नग़मा कोई नौहा कोई सोज़

सब तुम्हारा ही है, हम कुछ भी नहीं ले जायेंगे
कौल दोहराते शहीदों का चले जायेंगे

दरो दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
ख़ुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं